देहरादून। देहरादून का एक ऐसा भवन जो देश के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को यादों में संजोकर रखता है, जो अब इतिहास बनने जा रहा है। साल 1966 में संभवतः देहरादून के उस एक मात्र भवन पर खतरा मंडरा रहा है जिसकी नींव बहादुरी की मिशाल मानेकशॉ ने रखी थी। शिक्षा के मंदिर को बंद करने के प्रयासों के बीच कुछ उम्मीदें भी हैं जो ऐतिहासिक स्कूल को बचाए रखना चाहती है।
मिट जायेगी देहरादून में आखिरी निशानी
एक दिलेर युद्ध नायक की कहानी को फिल्म के परदे खूब प्रशंसा मिल रही है। यूं तो पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ को हर कोई जानता है, लेकिन अब युवा पीढ़ी भी फिल्म के माध्यम से उनकी बहादुरी को करीब से जान रही है। देश में अभी बड़े पर्दे पर लगी निर्देशक मेघना गुलजार की फिल्म खूब चर्चाओं में हैं, लेकिन इन्हीं सुर्खियों के बीच देहरादून में उनकी आखिरी निशानी को मिटाने की कागजी औपचारिकताएं पूरी हो रही हैं। बात देहरादून के 58 जीटीसी यानी गोरखा ट्रेनिंग सेंटर जूनियर हाई स्कूल की हो रही है, जिसके कैंट स्थित इस विद्यालय की आधारशिला 11 अक्टूबर 1966 को रखी गई थी। सबसे खास बात यह है कि खुद पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने इसकी नींव रखी। उस दौरान सेना के जवानों के बच्चों को इसमें शिक्षा दी जाती थी साथ ही आसपास में रहने वाले लोगों ने भी अपने बच्चों को इसमें दाखिला दिलवाया था। लेकिन कभी 1000 से ज्यादा बच्चों की संख्या वाला यह विद्यालय अब करीब 50 बच्चों तक ही सिमट गया है। हैरानी की बात यह है कि इसी तर्क के साथ अब इस विद्यालय को बंद करने के लिए चिट्ठी लिखने का दौर भी शुरू हो चुका है।
स्कूल बंद करने के लिए औपचारिकता शुरू
ऐतिहासिक भवन में शिक्षा के मंदिर को बनाए रखने की कोशिश होने के बजाय इसे बंद करने के प्रयास किया जा रहे हैं। इसके लिए कभी कैंट बोर्ड द्वारा विद्यालय के भवन की खराब हालत को लेकर चिट्ठी पत्री लिखी जा रही है तो कभी शिक्षा विभाग द्वारा इसे बंद करने से जुड़ी औपचारिकताओं पर काम किया जा रहा है। जबकि हकीकत यह है कि भवन की स्थिति ना तो जर्जर दिख रही है और ना ही इस विद्यालय की लोकेशन ऐसी है जहां छात्र संख्या को नहीं बढ़ाया जा सकता। इसके बावजूद विद्यालय को बंद करने के लिए लगातार पत्र लिखे जा रहे हैं।
1966 में मानेकशॉ ने किया था शुभारंभ
सेना के स्वामित्व वाले इस विद्यालय को वैसे तो 1952 में ही शुरू कर दिया गया था लेकिन बाद में सैम मानेकशॉ ने जिस भवन का 1966 में शुभारंभ किया उसी में इसे शिफ्ट कर दिया गया। यह विद्यालय कक्षा आठवीं तक है और इसे बंद किये जाने की खबर के बाद से ही विधालय के स्टाफ की चिंता बढ़ गयी है। विद्यालय के प्रधानाचार्य अनिल कुमार कहते हैं कि जिस विद्यालय में उन्होंने अपना पूरा जीवन दे दिया उसके बंद होने की सूचना उनके लिए बेहद दुखद है और वह चाहते हैं कि पहले फील्ड मार्शल की इस आखिरी निशानी को तबाह ना किया जाए।
सरकार की तरफ से नहीं हो रहा कोई प्रयास
देहरादून का यह विद्यालय सहायता प्राप्त है और उत्तराखंड सरकार यहां काम करने वाले शिक्षकों और दूसरे स्टाफ को वेतन देती है। सैम बहादुर जिनके किस्से और किताबें स्कूलों में ही नहीं बल्कि सेना में भी सुने और पढ़े जाते हैं, उसकी आखिरी निशानी को बचाने का ना तो सुना और ना ही राज्य सरकार की तरफ से कोई प्रयास होता हुआ दिखाई दे रहा है। विद्यालय से जुड़े लोग कहते हैं कि कई बार विद्यालय के भवन की मरम्मत को लेकर एस्टीमेट तैयार किया गया लेकिन न जाने इसके लिए आर्थिक सहायता नहीं भेजी गई। हालांकि अब भी स्कूल के शिक्षक और स्टाफ की उम्मीद नहीं टूटी है, और उन्हें लगता है कि वीर बहादुर सेना नायक की यादों को इस तरह नहीं मिटाया जा सकता।